“राख बनने से पहले थोड़ा जी लो ..”
"राख बनने से पहले थोड़ा जी लो" हम हर रोज़ भाग रहे हैं। स्कूल, कॉलेज, नौकरी, व्यवसाय, ज़िम्मेदारियाँ, लक्ष्य, प्रतिस्पर्धा—इन सबमें हम जीना भूलते जा रहे हैं। हमारा जीवन एक रेत के घड़ी की तरह है। रेत के कण ऊपर से नीचे गिर रहे हैं… और एक दिन वह रेत खत्म हो जाएगी। सवाल बस इतना है – क्या उस रेत के खत्म होने तक हम सचमुच जी रहे हैं? "हम सभी का जन्म एक अनिश्चित समाप्ति तिथि के साथ हुआ है।" तो सवाल है, जब अंत में हमें राख ही बनना है, तो क्या पहले सचमुच जीना चाहिए या नहीं? हम कहाँ भाग रहे हैं? सुबह आँख खुलते ही मोबाइल में ईमेल, काम का तनाव, घर लौटते ही फिर चिंताएँ, हमारा जीवन एक "टू-डू लिस्ट" में फँस गया है। "आज ऑफिस में मीटिंग है।" "टारगेट पूरा करना है।" "बिल भरने हैं।" "बच्चों की स्कूल फीस भरनी है।" हम भागते रहते हैं, लेकिन पहुँचते कहाँ हैं? इंसान नौकरी में इतना डूब जाता है कि अपने बच्चों का पहला टूटा-फूटा शब्द सुनने के लिए वह घर पर नहीं होता, स्कूल का पहला दिन उसने नहीं देखा, और बड़ों के साथ खाना खाने का समय उसके पास नहीं होता। फिर एक दिन अचानक हार्ट अटैक आता है, और इंसान जो था, वह नहीं रहता। कुछ ही समय में राख बन जाता है। भागदौड़ में खोया हुआ जीवन। हममें से कितने लोग ऐसा कर रहे हैं? हम पैसे के लिए भागते हैं, लेकिन अंत में पैसे खर्च करने का समय ही नहीं बचता। हम भविष्य को सुरक्षित करने में इतने डूब जाते हैं कि आज का आनंद खो देते हैं। क्या आपने गौर किया है? छोटे बच्चे कितनी सहजता से हँसते हैं। वे भविष्य की चिंता नहीं करते, बीते हुए का बोझ नहीं उठाते। वे बस "अभी" में जीते हैं। और हम? "अभी" को भूलकर हमेशा कल की चिंता और बीते हुए का दुख लिए अटके रहते हैं। हर पल का आनंद लो। ज़रा याद करो— क्या तुम्हारी वजह से किसी की आँखों में खुशी के आँसू आए? क्या तुमने किसी को संकट में मदद का हाथ दिया? क्या तुमने अपने प्रियजनों के साथ सचमुच वक्त बिताया? अंत में, हम सभी राख बनने वाले हैं। जब हम राख बन जाएँगे, तो लोग हमें किस लिए याद करेंगे? क्या हमने कितना बैंक बैलेंस छोड़ा था? या हमने लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया, मुश्किल वक्त में किसका हाथ थामा, किसकी मदद की, किसके आँसू पोंछे, किसे हँसाया? महात्मा गांधी, सावित्रीबाई फुले, भीमराव आंबेडकर और अन्य महान लोगों के पास अपार संपत्ति नहीं थी, फिर भी वे आज लोगों के दिलों में ज़िंदा हैं। क्योंकि उन्होंने जीते हुए दूसरों का जीवन रोशन किया। अपने माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, बच्चों, प्रेमी-प्रेमिका, दोस्तों को, और सबसे ज़रूरी, खुद को समय दो। पैसों से समय नहीं खरीदा जा सकता, और एक बार चला गया पल वापस भी नहीं आता। दुनिया में, जब तुम हो या तुम चले जाओ, तब भी कोई तुम्हें याद करेगा, क्योंकि तुमने कभी उसे दिल से गले लगाया था, सम्मान और प्यार से व्यवहार किया था। इंसान पैसा भूल सकता है, लेकिन तुमने दिया हुआ प्यार और सम्मान कभी नहीं भूलेगा। प्यार फैलाओ। लोग कहते हैं – "रिटायर होने के बाद मज़े करूँगा, खूब खर्च करूँगा, घूमने जाऊँगा, गाना सीखूँगा, जीवन का आनंद लूँगा।" लेकिन होता क्या है? 60 के बाद डॉक्टर कहते हैं – "नमक कम करो, चीनी कम करो, चढ़ाई-उतराई से बचो।" यानी जब दाँत थे, तब चने नहीं थे, और अब चने हैं, तो दाँतों ने विदा ले लिया... 😊 इसलिए, बस सोचते मत रहो, कुछ करो। गाना सीखना है, तो सीखो। घूमना है, तो घूमो। सपने जियो। जब शरीर जवान है, तब यात्राएँ करो, नया सीखो। सुरक्षित खेलने में मत उलझो। अपने दिल की, अपने शरीर की भी सुनो। हर दिन को एक तोहफे की तरह मानो। आज मिली साँस का कल होगी, यह ज़रूरी नहीं। तो फिर क्यों कल की चिंता में आज का आनंद बर्बाद करना? हम राख बनने वाले हैं ही। लेकिन उससे पहले— किसी को दिल से हँसाओ, किसी को मदद का हाथ दो, खुद के लिए थोड़ा जियो, सपने जियो। खुलकर हँसो, खेलो, मस्ती करो... क्योंकि जब अंत में राख बनना है, तब बस यही मायने रखेगा— "क्या हम सचमुच जीए?" इसलिए एक बार फिर कहता हूँ – राख बनने से पहले थोड़ा जी लो...!!! ---
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