“राख बनने से पहले थोड़ा जी लो ..”
"राख बनने से पहले थोड़ा जी लो" हम हर रोज़ भाग रहे हैं। स्कूल, कॉलेज, नौकरी, व्यवसाय, ज़िम्मेदारियाँ, लक्ष्य, प्रतिस्पर्धा—इन सबमें हम जीना भूलते जा रहे हैं। हमारा जीवन एक रेत के घड़ी की तरह है। रेत के कण ऊपर से नीचे गिर रहे हैं… और एक दिन वह रेत खत्म हो जाएगी। सवाल बस इतना है – क्या उस रेत के खत्म होने तक हम सचमुच जी रहे हैं? "हम सभी का जन्म एक अनिश्चित समाप्ति तिथि के साथ हुआ है।" तो सवाल है, जब अंत में हमें राख ही बनना है, तो क्या पहले सचमुच जीना चाहिए या नहीं? हम कहाँ भाग रहे हैं? सुबह आँख खुलते ही मोबाइल में ईमेल, काम का तनाव, घर लौटते ही फिर चिंताएँ, हमारा जीवन एक "टू-डू लिस्ट" में फँस गया है। "आज ऑफिस में मीटिंग है।" "टारगेट पूरा करना है।" "बिल भरने हैं।" "बच्चों की स्कूल फीस भरनी है।" हम भागते रहते हैं, लेकिन पहुँचते कहाँ हैं? इंसान नौकरी में इतना डूब जाता है कि अपने बच्चों का पहला टूटा-फूटा शब्द सुनने के लिए वह घर पर नहीं होता, स्कूल का पहला दिन उसने नहीं देखा, और बड़ों के स...